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मंजिल ढूँढती हूँ……

kavita
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मंजिल  ढूँढती हूँ
रास्तों के सफ़र में
ये बाज़ार की भीड़ है
मंजिल दिखेगी  कहाँ ।।

तन्हाई में भी मैं
चल  प ड़ती हूँ गर
अँधेरी इस दुनिया में
रौशनी है कहाँ  ।।

जहां भी जाती हूँ
इस  अंध  जग   में
परछाईं भी अपनी
पराई सी लगे    ।।

निशाँ ढूँढती हूँ
मंजिल   की  मैं
रेतीली ज़मीन है
मिलेगी   कहाँ   ।।

आँधियों से लड़ने की
आदत तो हो गयी
पर कदम अब भी –
ढूँढती  है  तेरे निशाँ   ।।


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