kavita
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मुझमे क्या कुछ बाकी है
जीवन ये एकाकी है
पवन नदी औ ‘ निर्जन वन ये
मुझको पास बुलाती है
मृदु-मृदु ये लहरे बहती
मंद-मंद सी पवन ये कहती
विचलित होना न रे ! नर तू
जीवन अवश्यम्भावी है
क्या मुझमे कुछ बाकी है ?
व्यर्थ ये जीवन कहूं न कैसे ?
व्यर्थ ये साँसे तजूं न क्यों मै ?
किसी के मन को भाया मै नहीं
उर में भरा ये रूदन है
फिर भी मुझमे कुछ बाकी है !
आशाओं को सींचूं फिर भी
भाग्य – पुष्प को खिलाऊँ फिर भी
काल-विजय का सपना देखूं
जीवन को जीवंत करना है
अरे! जीवन में सब कुछ बाकी है ।
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