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दिग्भ्रमित सी दिशाएँ

kavita
kavita
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दिग्भ्रमित सी दिशाएँ है
छाया कुहासा चारों और
दीपशिखा को कुचला किसने
धुआं का कहीं न और छोर
अन्धतम इतनी गहराई
ज्योत भी मंद पड़ गया
बुझ गया दीपक था जिसमे
तेल–जीवन बह गया
वायु में है वेग इतना
नाव भी भटके है मार्ग
मंझधार में है या किनारे
या भंवर में फंसा है नाव
ईश से है ये गुजारिश
भाग्य में लिख दे यही
विपद से रक्षा नहीं !
मांगू मैं न डरने की सीख

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