kavita
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आँखों के सुरीले सपनो को
यूं ही न बहने दो
नींदों में बसते है सपने
नींदों को यूं न उड़ने दो
ज़मीन पे उतारो उन-
सपनों को ज़रा हौले से
वक्त से मुखातिब हूँ मैं
सपनों के मचलने से
समय के गिरेबां में
बाँधा था जिन लम्हों को
तेरे ही पैरों के निशां
है उन लमही ख्वाबों पर
तेरे कदमों के निशाँ
मैं ढूँढता रहा हवाओं में
ज़मीं पे,फलक पे,
गुलशन पे फिजाओं पे
मिला वो- कहीं समय
से परे जाकर , क्षितिज में
छुपी थी वो समय के
स्नेहिल आगोश में
कभी अपनी आँखों से
मेरे आँखों की भाषा पढ़
हकीकत को सपनों की
तहज़ीब से ओढ़कर
मेरे पलकों के नीचे भी
उनींदे ख्वाब पलते है
सुना वो अक्स भी
तेरे चहरे से मिलते है
अब इन सुरीले सपनों को-
बहने मत दिया करो
हो सकता है बह जाए
मेरा अक्स…रहने दिया करो
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