kavita
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अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
मै नारी हूँ ….
अस्मिता को बचाते हुए
धरती में समा जाती हूँ
माँ- बहन इन शब्दों में
ये कैसा कटुता
है भर गया
इन शब्दों में अपशब्दों के
बोझ ढोते जाती हूँ
पत्नी-बहू के रिश्तो में
उलझती चली जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
अपने गर्भ से जिस संतान को
मैंने है जन्म दिया
अपनी इच्छाओं की आहुति देकर
जिसकी कामनाओं को पूर्ण किया
आज उस संतान के समक्ष
विवश हुई जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
नारी हूँ पर अबला नही
सृष्टि की जननी हूँ मै
पर इस मन का क्या करूँ
अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख
अस्तित्व छोडती जाती हूँ
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