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धरित्री पर खडा हूँ मै

kavita
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धरित्री पर खडा हूँ मै

अटल अडिग जड़ा हूँ मै

नीव है मेरा गर्त में

फौलाद सा कड़ा हूँ मै (1)

पर्वत मुझे सब कहे

वन को अंक में लिए

झरनों ,नदों से हूँ सुसज्जित

देश  का रक्षक हूँ मै (2)

शत्रु को डराऊं मै

पशुओं को छिपाऊँ मै

औषधों से इस धरा को

अजर अमर बनाऊँ मै (3)

फिर ये कैसी  शत्रुता

वन को क्यों है काटता

रे मनुष्य संभल जा

मैं हूँ तुम्हारी आवश्यकता (4)

क्यों हो वन को काटते

नदी को क्यों हो मोड़ते

ये प्रवाह ,ये तरंग स्वतः है

इसे हो तुम क्यों छेड़ते (5)

व्यथा ये मन की नदी कहे

नालों से क्यों हो जोड़ते

जल जीव को भी हक़ है ये

जीये और जीते रहे  (6)

वन्य   प्राणी   ये कहे

वृक्ष क्यों ये कट  गए

पनाह है ये जीवों  का

तुम आये और काट के चल दिए  (7)


परिणाम है बहुत बुरा

धरती  बंजर  कहलायेगा

ना बरसेंगे ये घनघटा

ना  तूफां को रोक  पायेगा  (8)



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